पिथौरागढ़: मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी 14 नवंबर को एक दिवसीय सीमांत जिले पिथौरागढ़ के दौरे पर रहेंगे। अपने इस दौरे के दौरान वे पहले अपने पैतृक गांव टुंडी बारमौं पहुंचेंगे, जहां वे ग्रामीणों से मुलाकात कर उनका हालचाल जानेंगे। इसके बाद मुख्यमंत्री ऐतिहासिक जौलजीबी मेले का विधिवत उद्घाटन करेंगे।
सीएम धामी का यह दौरा सीमांत क्षेत्र के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि वे लंबे समय बाद अपने पैतृक गांव का दौरा करने जा रहे हैं। जौलजीबी मेला न सिर्फ कुमाऊं का प्रमुख सांस्कृतिक उत्सव है बल्कि यह सीमांत इलाकों की परंपराओं, व्यापार और लोक संस्कृति का प्रतीक भी है।
हड़खोला और टुंडी बारमौं हैं सीएम धामी के पैतृक गांव
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का पैतृक गांव डीडीहाट के हड़खोला में स्थित है। बताया जाता है कि साल 1970 के दशक में उनका परिवार कनालीछीना विकासखंड के टुंडी बारमौं गांव में बस गया था, जहां सीएम धामी की प्रारंभिक शिक्षा भी हुई।
लगभग साल 1980 में उनका परिवार टुंडी से खटीमा चला गया, लेकिन मुख्यमंत्री का अपने गांवों से गहरा भावनात्मक लगाव आज भी कायम है।
सीएम बनने के बाद पुष्कर सिंह धामी ने अपने पैतृक गांवों के विकास के लिए विशेष पहल की। पहले जहां हड़खोला और टुंडी तक सड़क सुविधा नहीं थी, अब दोनों गांवों को सड़क मार्ग से जोड़ा गया है, साथ ही दोनों स्थानों पर हेलीपैड भी बनाए गए हैं।
धामी परिवार समय-समय पर पूजा-अर्चना के लिए अपने पैतृक गांवों का दौरा करता रहता है, जिससे स्थानीय लोगों के साथ उनका गहरा संबंध बना हुआ है।
प्रशासन ने तैयारियों का लिया जायजा
मुख्यमंत्री के प्रस्तावित दौरे को देखते हुए डीएम आशीष भटगांई और एसपी रेखा यादव ने कनालीछीना विकासखंड के टुंडी बारमौं में व्यवस्थाओं का स्थलीय निरीक्षण किया।
इस दौरान डीएम ने संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए कि सभी तैयारियां समयबद्ध और गुणवत्तापूर्ण ढंग से पूरी की जाएं। उन्होंने ग्राम बारमौं और टुंडी के ग्रामीणों से बातचीत कर सहयोग का आग्रह किया और कहा कि मुख्यमंत्री का आगमन पूरे क्षेत्र के लिए गौरव की बात है।
डीएम भटगांई ने कहा कि सभी विभाग आपसी समन्वय के साथ मिलकर इस आयोजन को सफल बनाएं।
जौलजीबी मेले का इतिहास और महत्व
जौलजीबी मेला उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में गोरी और काली नदियों के संगम स्थल जौलजीबी में आयोजित होता है। यह मेला कुमाऊं क्षेत्र का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक मेला है, जिसकी शुरुआत लगभग 1914 ईस्वी (ब्रिटिश शासनकाल) में हुई मानी जाती है।
इस मेले का उद्देश्य उस समय भारत-तिब्बत व्यापार को बढ़ावा देना था। पुराने समय में तिब्बत, नेपाल और भारत के व्यापारी यहां आकर ऊन, नमक, घोड़े और वस्त्रों का आदान-प्रदान करते थे। यह मेला धीरे-धीरे भारत और तिब्बत के बीच सांस्कृतिक और आर्थिक रिश्तों का केंद्र बन गया।
आज भी यह मेला कुमाऊंनी और नेपाली संस्कृतियों के मेल का प्रतीक है। यहां पारंपरिक लोकगीत, नृत्य, हस्तशिल्प, स्थानीय भोजन और वेशभूषा की झलक देखने को मिलती है।
स्थानीय लोग इसे ‘मिलन मेला’ भी कहते हैं, क्योंकि यह पर्व सामाजिक मेलजोल और सामुदायिक एकता का प्रतीक है।
समय के साथ भले ही व्यापार का स्वरूप बदला हो, लेकिन आज भी इस मेले में स्थानीय उत्पाद, ऊनी वस्त्र, लकड़ी के सामान, पशु और कृषि उपकरण खरीदे-बेचे जाते हैं। यह मेला न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को सशक्त करता है, बल्कि क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को भी जीवित रखता है।
हर साल यह मेला नवंबर माह में आयोजित होता है, जो आम तौर पर 14 नवंबर से शुरू होकर दो सप्ताह तक चलता है। जौलजीबी मेला आज भी कुमाऊं की सांस्कृतिक धरोहर और सीमांत प्रदेश की परंपरा, एकता और जीवंतता का प्रतीक बना हुआ है।







